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गुरुवार, 27 मई 2010

ह्रदय के उद्द्गार

ह्रदय   के उद्द्गार 
माना की यहाँ जलजले बेखोफ चले आते हैं
मैं रोक नहीं सकती इन ह्रदय के उद्द्गारों को .
        जो मैं ऐसा जानती ,
       एक लहर समापन कर देगी मैं रेत का महल बनाती क्यूँ
       साहिल भी  किनारा कर लेगा मैं कागज की नाव चलातीक्यूँ .
जो मैं ऐसा जानती ,
        स्वर्ण रथ पर खड़ा लुटेरा चुप चाप  चला  आएगा 
        मैं स्वप्न दिए यूँ चोखट पे सजाती क्यूँ  
एक लहर समापन कर देगी मैं रेत का महल बनाती क्यूँ .
    जो मैं ऐसा जानती ,
एक बदली धूप चुरा लेगी मैं भीगे केश सुखाती क्यूँ
मौसम भी बगावत कर देगा मैं सर से चुनरी सरकाती क्यूँ
     एक लहर समापन कर देगी मैं रेत का महल बनाती क्यूँ !!

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